Saturday, June 28, 2008

मत चूको करार


भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु समझौता पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में एक चिंतक के लहजे में कहा कि ‘यदि परमाणु समझौता पूरा नहीं होता है तो भी सब कुछ खत्म नहीं हो जाएगा।ज् उनका यह कहना कई मायने में सही भी है कि भारत अपने कदम आगे बढ़ाता रहेगा। लेकिन हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर यह किस कीमत पर होगा। क्या भारत विश्व समुदाय से अपने को अलग-थलग करना चाहेगा। वो भी 21 वीं शताब्दी में जहां विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे के करीब आ रही हैं।

भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु समझौते की आकस्मिक मृत्यु या फिर अमेरिका विरोध की लहर इसे ले डूबती है तो यह स्थिति 21 वीं शताब्दी में भारत के सामरिक हितों के लिए बहुत बड़ा धक्का साबित होगा। जुलाई 2005 में अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते का भारत के लिए बहुत ही व्यापक आयाम है। यह समझौता केवल परमाणु ऊर्जा या फिर परमाणु हथियारों तक ही सीमित नहीं है बल्कि 1974 के बाद से भारत पर लगाए गए प्रतिबंधों से भी भारत को निजात दिलाने वाला है।

परमाणु समझौते के पीछे भारत के पास यूरेनियम की जरूरत प्रमुख मुद्दा है। इसी से सारे मुद्दे जुड़े हुए हैं। भारत में यूरेनियम की कमी बहुत ही नाजुक स्थिति में है। यदि हाल-फिलहाल या अगले साल तक हमें यूरेनियम नहीं मिलता है तो हमारे परमाणु ऊर्जा के सारे कार्यक्रम ठप हो जाएंगे। यह हमारे लिए संकट की स्थिति होगी। इससे हमारे सामरिक कार्यक्रम बुरी तरह प्रभावित होंगे। हमारा ‘ब्रीडर प्रोग्रामज् भी चौपट हो सकता है। भारत ऐसी स्थिति में अपने को आने देना नहीं चाहता। शायद यही वजह है कि वह जल्द से जल्द इस असैनिक परमाणु करार को पूरा करना चाहता है।

केंद्र में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी और सरकार को बाहर से सहयोग दे रही वामपंथी पार्टियां बार-बार इस करार का विरोध कर रही हैं। ऐसा करके वे भारत की जरूरतों से मुंह मोड़ रही हैं। भारत के पास परमाणु समझौते के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। क्योंकि हमारे पास घरेलू यूरेनियम का भंडार बहुत सीमित है। अगर यह समझौता अपने मुकाम पर नहीं पहुंचता है तो हमारे सहयोगी देश भी यूरेनियम आपूर्ति से हाथ खींच सकते हैं। रूस ने भी स्पष्ट रूप से कह दिया है कि अमेरिका से परमाणु समझौता हुए बिना वह भारत को यूरेनियम की आपूर्ति नहीं कर पाएगा। ऐसे में परमाणु करार का विरोध कर रहे दलों को विचार करने की जरूरत है। उन्हें भारत के हितों को प्रमुखता देने की जरूरत है।

जहां तक भारत के हित की बात है तो उसे सब लोग अपनी-अपनी तरह से परिभाषित कर रहे हैं। अमेरिका जो कुछ भी कह रहा है उसका तरीका अलग है। हमें परमाणु समझौते से सबसे बड़ा फायदा यह होने जा रहा है कि भारत के ऊपर जो कुछ भी पाबंदियां परमाणु व्यापार के लिए लगी हैं उन्हें धीरे-धीरे उठा लिया जाएगा। प्रतिबंधों के हटने से उच्च तकनीक प्राप्त करने का रास्ता भी साफ हो जाएगा। भारत के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण व लाभदायक बात होगी। अमेरिका के इस कदम से भारत के लिए परमाणु मंच पर व्यापार करने का रास्ता खुल जाएगा। इस व्यापार से हमारे तीनों प्रोग्राम, विद्युत ऊर्जा कार्यक्रम, सामरिक हथियारों का कार्यक्रम और रिसर्च एंड डवलपमेंट प्रोग्राम (आरएनडी) जिसमें ‘ब्रीडरज् भी शामिल है, धीरे-धीरे पूरे हो सकते हैं। इस तरह से देखा जाए तो परमाणु करार सिर्फ हमारी ऊर्जा जरूरतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें आर्थिक, सामरिक और तकनीकी हित भी छिपे हैं। यह भी भारत के लिए लाभदायक स्थिति होगी। परमाणु समझौता समय पर पूरा नहीं होता है तो इससे हमारी ऊर्जा जरूरतें प्रभावित होंगी जो हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी काफी घातक होगा।

भारत में अमेरिका को लेकर तरह-तरह की धारणाएं हैं। उसमें एक यह भी है कि वह चीन की बढ़ती ताकत से भयभीत है। इसीलिए भारत के साथ वह परमाणु समझौते के लिए दबाव डाल रहा है। यह बात कहीं से भी सत्य के करीब नहीं है। भारत की तरफ से अमेरिका और चीन के साथ रिश्ते बहुत ही स्पष्ट हैं। भारत यह चाहता है कि उसके रिश्ते चीन के साथ भी बहुत मजबूत रहें और अमेरिका के साथ भी।

अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते परमाणु मुद्दे के कारण कुछ ढांचों से बाहर हैं। यह करार उन्हीं रिश्तों को अपनी जगह लाने का प्रयास है। अमेरिका ने हमारे ऊपर कई तरह की तकनीकी पाबंदियां लगा रखी हैं। खासकर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के समय दोनों देशों के बीच कड़वाहट आ गई थी। यह समझौता इस कड़वाहट को दूर करने की एक कवायद भी है। वर्तमान समय में आर्थिक क्षमता ही किसी देश का महत्व तय कर रहा है। अगर हमारे पास आर्थिक, सैनिक या फिर तकनीकी क्षमता है तो हम चीन के साथ भी अपना रिश्ता और मजबूत कर सकते हैं। अगर परमाणु समझौता पूरा नहीं होगा तो अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते वहीं के वहीं रह जाएंगे। उसमें नवीनता नहीं आ पाएगी। हम उच्च तकनीकी का भरपूर उपयोग नहीं कर पाएंगे। यदि हम शक्ति संपन्न नहीं होंगे तो चीन के सामने भी हमें सिर झुकाना पड़ेगा। दोनों ही स्थितियां भारत के हित में नहीं है। यह करार पूरा होगा तभी हम अपनी पूरी क्षमता के साथ आगे बढ़ पाएंगे। अभी हम झुके हुए हैं। हमें जरूरत इस बात की है कि जो कुछ भी हमारी क्षमता है उसका हम भरपूर उपयोग करें।

अमेरिका और भारत में एक समान वातावरण यह है कि दोनों के ही सामने चुनाव हैं। इसलिए दोनों ही देशों की सरकारें इस समझौते को पूरा करने की कोशिश में लगी हुई हैं। यदि यह करार वर्तमान सरकार में नहीं भी होता है तो भी इसके पूरी तरह से खारिज होने की कम संभावना दिखाई दे रही है। अमेरिका भी इस बारे में कई बार बयान दे चुका है कि व्हाइट हाऊस में जो कोई भी बैठे वह इस करार को पूरा करने की कोशिश करेगा। भारत में भी कुछ ऐसा ही माहौल बनेगा, क्योंकि कांग्रेस के अलावा भारतीय जनता पार्टी भी इस करार से मुंह मोड़ नहीं पाएगी क्योंकि एनडीए के शासन काल में ही ‘पोखरण-दोज् जसे कदम उठाए गए थे।

यदि भारत इस करार से चूक जाता है तो वह 21वीं शताब्दी में उभरते विश्व समुदाय का हिस्सा बनने में पीछे रह जाएगा। यह उसके लिए एक समस्या के रूप में होगी। ऐसी स्थिति कांग्रेस या भाजपा, दोनों नहीं चाहेंगी। असैनिक परमाणु क्षमता आज भारत की जरूरत है। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए भारत के दीर्घकालिक हितों को नजरअंदाज करना किसी भी कीमत पर ठीक नहीं होगा।

(डिफेंस एनालिस्ट कामोडोर सी. उदय भास्कर से बातचीत पर आधारित, साभार- आज समाज)

Saturday, June 14, 2008

माया का चक्कर सबको भरमाता


बह रही है भ्रष्टाचार की गंगा। सभी हाथ धो रहे हैं। कोई ज्यादा कोई कम। पुलिस उसमें डूबी है। उसी में रमी है। सबको मालूम है। पता है। जन्नत की हकीकत। कौन बोले। कौन मुंह खोले। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। बांधना मुश्किल है। बंध जाए तो सवाल होगा- बिल्ली किसकी है। कहा जाएगा- मेरी बिल्ली, मुझसे म्याऊं। बात इतनी नहीं है कि पैसे कौन ले रहा है। ये भी है कि देता कौन है। लेन-देन में दोनों दोषी। माया का चक्कर है। सबको भरमाता है। बचे सो उतरहिं पार।

Friday, June 13, 2008

मोती तट पर नहीं होते


समुद्र का नीला होता है। आसमान का रंग भी। अथाह गहराई। बेपनाह ऊंचाई। और विस्तार। इस सबके बावजूद बला की शांति। यह जानते हुए कि उनके अंदर क्या है। खबरों की दुनिया भी ऐसी ही है। नीला सागर। विराट। अनंत। संभावनाओं से भरपूर। उथलापन न हो तो। किनारे का रंग पीला होता है। इसलिए जरूरी है कि गहरे उतरो। थपेड़ों से डरे बिना। देखो। समझो। मझधार में जाओ। भंवर से खेलो। जहां तक हो सके। क्योंकि मोती तट पर नहीं होते। वहां बस सतही गंदगी है। और कीचड़।

Tuesday, April 22, 2008

क्रेजी क्रिकेट

भूपेंद्र सिंह

क्रेजी क्रिकेट। जी हां। हर तरफ पागलपन का माहौल। मैदान पर। टीवी पर और गली-मुहल्लों में। आईपीएल का रोमांच सबके सर चढ़कर बोल रहा है। दनादन छक्के। झटपट गिरते विकेट। और हर रोमांचक लम्हों पर देशी गानों पर थिरकती विदेशी बालाएं। मौजा ही मौजा करती हुईं। लगता है हर तरफ मौज ही मौज है। उपर से क्रिकेट में बालीवुड का तड़का। और क्या चाहिए। क्रेजी होने के लिए। सभी कुछ तो मौजूद है यहां। लेकिन सब कुछ होने के बावजूद लगता है लगता कुछ नहीं है। वो है देशभक्ति का अहसास। अंतरराष्ट्रीय मैच के दौरान जब भारतीय धुरंधर दूसरे देश के बालरों की बखिया उधेड़ते हैं, तो वो अहसास ही कुछ अलग होता है। या जब ईंशात शर्मा जैसे बालर पोंटिग की गिल्लियां बिखेरते हैं, जो मन बाग-बाग हो उठता है। मन करता है इन फिरंगियों को मजा चखा दें। लेकिन आईपीएल में न जाने क्यों फर्क ही नहीं पड़ता। कोई भी जीते। कोई भी हारे। हमें क्या। हमें मजा चाहिए और वो हमें मिल रहा है। आईपीएल के मैच के दौरान कई बार ऐसे मौके आए, जब लगा कि शायद यह जज्बा लोगों से गायब हो गया है। मंगलवार को डेक्कन चार्जर्स के खिलाफ जब वीरू ने अर्धशतक ठोका। तो हैदराबाद के मैदान में मौजूद दर्शकों ने उनका अभिवादन नहीं किया। इस पर वीरू ने हाथ उठाकर कहा क्या हुआ दोस्तों मैं तुम्हारा वीरू। लेकिन मैदान में सन्नाटा छाया रहा। इसी वीरू ने जब दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ ३१९ रन की पारी खेली थी। तो देश क्या विदेश में भी भारतीय झूम उठे थे। और मैदान पर मौजूद दर्शकों की तो बात ही छोड़ दीजिए। सब के सब क्रेजी हुए पड़े थे। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि आईपीएल हमारे क्रेजी दर्शकों में दीवार खड़ी कर रहा है। लोग देश को छोड़, प्रांतीय टीमों से जुड़ गए हैं। आईपीएल की टीमों के एडवरटिजमेंट से तो यही जाहिर होता है। जैसे एक डेंटिस्ट के यहां एक मरीज अपने दांत दिखाने आता है। इसी दौरान डाक्टर मरीज से पूछता है कि आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर मरीज कहता है दिल्ली डेयरडेविल्स। डाक्टर नर्स की ओर देखता है। और कहता है इनके एक दांत नहीं। पांच दांत उखाड़ दो। इस पर मरीज घबरा जाता है, और डाक्टर रेपिस्ट जैसी हंसी के साथ कहता है। मैं मुंबई इंडियन। क्या पता कुछ दिनों बाद इस तरह की घटनाएं मैदान पर दिखाई दें। लोग अपनी टीम को लेकर इतने संवेदनशील हो उठे कि अपनी टीम के खिलाफ एक शब्द न सुन सकें। क्या पता डेक्कन चार्जर्स के प्रशंसक और नाइट राइडर्स के फैंस के बीच झगड़ा हो जाए और बात खून-खराबे तक पहुंच जाए। जैसा आमतौर पर पश्चिमी देशों में फुटबाल मैच के दौरान दिखाई देता है। मैनचेस्टर युनाइटेड के प्रशंसक या तो आर्सनल के फैंस को पीट देते हैं। या फिर आर्सनल के मैनचेस्टर युनाइटेड को।
मैं तो विदेश नहीं गया हूं, लेकिन मेरा दोस्त इंग्लैंड गया था। वहां जब वो कैब में बैठकर लिवरपूल जा रहा था। तो रास्ते में उसने कैब ड्राइवर से पूछा आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर कैब ड्राइवर ने कहा लिवरपूल। इसके बाद ड्राइवर ने पूछा आप। मेरा दोस्त बोला। मैनचेस्टर युनाइटेड। इस पर कैब ड्राइवर पीछे मुड़ा और कहा सो यू आर माई राइवल। अगर तुमने अब कोई भी हरकत की तो मैं तुम्हारा वो हश्र करूंगा कि तुम जिंदगी भर याद रखोगे। इसके बाद मेरा दोस्त चुपचाप बैठ गया और कुछ नहीं बोला। क्या पता कुछ दिनों बाद यहां के लोगों में भी प्रांतीय टीमों के लेकर इसी तरह की दीवार खड़ी हो जाए। है भगवान पहले से जाति-धर्म की इतनी दीवारें हैं। अब और नहीं। दर्शकों के बीच अगर यह दीवार खड़ी हो गई तो क्या पता सचिन तेंदुलकर के छक्के पर मुंबई वाला ही ताली बजाए और दिल्ली वाला खामोश बैठा रहे। या मुंबई वाले के ज्यादा उछलने पर उसे दूसरे टीम के समर्थक पीट भी दें। अगर ऐसा हुआ तो वो दिन शायद इस खेल और उसकी आत्मा के लिए सबसे शर्मनाक दिन होगा।

Tuesday, February 26, 2008

दूसरा बनकर स्वयं को जीना?

ओम कबीर

आमतौर पर मुझे कविताएं नहीं पसंद हैं। लेकिन कुछ कविताएं मेरी संवेदनाओं को छू जाती हैं। जिन्हें बार-बार पढ़ते हुए कुछ इस तरह महसूस होता है कि अपने बारे में कुछ सोच रहा हूं। कुछ इसी तरह की कविता है हंगेरियन कवि अदी की। ये पंक्तियां उनकी प्रसिद्ध कविता डिजायर्ड टू बी लव (प्यार किए जाने की चाह) से ली गई हैं।

कोई न मेरे पहले आता है न बाद में
कोई आत्मीय जन नहीं, कोई दोस्त नहीं
न दुख में, न सुख में
मुझ पर किसी का अधिकार नहीं
-किसी का... नहीं
नहीं, मैं किसी का नहीं हूं- किसी का नहीं हूं
मैं उसी तरह हूं जैसे सब आदमी होते हैं
---ध्रुवों की जैसी सफेदी
रहस्यमय, पराई, चौंधियाने वाली चमक
किसी दूरांत में पड़ी घास के गट्ठे की वसीयत - सरीखा
मैं दोस्तों में नहीं रह सकता--
मैं नहीं रह सकता दोस्तों के बगैर भी
आत्मीयजनों के बिना
यह इच्छा कितनी खुशी बांट जाती है कि
दूसरे मुझे देखेंगे
वे देखेंगे मुझे इस तरह दूसरों के सामने दिखना
इस तरह आत्मप्रताड़ना गीत और दान
दूसरा बनकर स्वयं को जीना
दूसरों के प्यार में स्वयं की प्रतिछवि देखना
उनके प्यार करने पर खुद को
प्यार किया जाता हुआ महसूसना
हां, कितनी खुशी बांट जाता है यह अहसास
कितना ले आता है लोगों को अपने पास

Friday, February 22, 2008

अप्पू मुझसे रूठ गया















भूपेंद्र सिंह


मेरे बचपन का साथी पीछे छूट गया,
मेरा अप्पू मुझसे रूठ गया।
कभी उन झूलों पर बसती थी जिंदगी,
खिलखिलाता था बचपन,
लेकिन आज फैली है खामोशी,
छाया है नीरसपन,
मेरा अप्पू अपनी मौत नहीं है मरा,
बड़ों की ख्वाहिशों ने उसे मारा है,
लेकिन क्या करें
अब तो बस अप्पू की यादों का सहारा है।

अप्पू घर महज एक एम्युजमेंट पाकॆ नहीं था। बल्कि एक सपना था, उन बच्चों का जो इसके साथ बड़े हुए। इसके साथ जिए। इसके झूले पर झूलकर जिंदगी को जिया। ये उन बच्चों का भी सपना था, जो यहां झूलना चाहते थे। अपना बचपन जीता चाहते थे। लेकिन जैसा हमेशा से होता आया है। बड़ों के अरमानों के आगे बच्चों की ख्वाहिशों की बलि दी जाती रही है। वहीं यहां भी हुआ। कुछ वकीलों और जजों की लाइब्रेरी और बैठने की जगह के लिए बच्चों के बचपन का आशियाना उजाड़ दिया गया। निदा फाजली ने ठीक ही कहा है।

बच्चों के छोटे हाथों में चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।

वकील और जज भी चार किताबें पढ़कर ये भूल गए हैं, कि वो भी कभी बच्चे थे। बचपन में जब उनसे कोई उनका खिलौना छीनता होगा, तो वो भी रोते होंगे। अगर आज वो बच्चे होते, तब उन्हें पता चलता कि बचपन की क्या अहमियत होती है। खिलौनों के छीन लिए जाने पर कैसा लगता है। आज सब बड़े हो गए हैं, उन्हें खेलने के लिए खिलौनों और झूले नहीं चाहिए। उन्हें चाहिए ऐशो आराम। ये उनकी आज की जरूरतें थी। अगर आज उनसे उनका ये ऐशो आराम छीन लिया जाए, तो सभी किस तरह भड़केंगे। हम सभी जानते हैं।
मैं बचपन से दिल्ली में रहा हूं। अप्पू घर के झूलों में झूला हूं। इसलिए जानता हूं कि पुराने साथी का बिछड़ना कैसा लगता है। कोई आपके सामने ही आपके बचपन के आशियाने को उजाड़ दे, तो कैसा लगता है। मैं जानता हूं। सबकुछ देख रहा हूं, फिर भी कुछ नहीं करता। क्या करूं कानूनी दावपेंचों में उलझना नहीं चाहता। इसलिए खामोश हूं, क्योंकि चार किताबें पढ़कर मैं भी बड़ों जैसा हो गया हूं। आगे पीछे का सोचने लगा हूं। बड़ों जैसा हो गया हूं।

Wednesday, December 5, 2007

अशोक बन गए हैं बुद्धदेव

कलिंग में तबाही मचाने के बाद जिस तरह अशोक ने माफी मांग ली थी। ठीक उसी तरह बुद्धदेव भी झुक गए हैं। उन्होंने नंदीग्राम के मामले में माफी मांग ली है। उन्होंने कहा है मैं शांति चाहता हूं। नंदीग्राम को तबाह करने के बाद बुद्धदेव ने पहली बार अपनी गलती स्वीकार की है। चलो वामपंथियों में से किसी ने तो अपनी गलती स्वीकार की। कई तो अभी भी पता नहीं कौन से कोने में छिपे बैठे हैं। कंलिंग में खूनखराबा मचाने के बाद अशोक का ह्दय परिवतॆन हो गया था। उन्होंने बौद्ध धमॆ अपना लिया था। तो क्या बुद्धदेव भी बदल गए हैं। क्या वो भी अब खूनखराबे का रास्ता छोड़कर शांति के पथ पर चलना चाहते हैं। क्या वो भी अहिंसा का रास्ता अपना लेंगे। खैर देखते हैं कि बुद्धदेव कितने दिनों तक अपने का‍‍डर को काबू में रख पाते हैं।